नागपत्री एक रहस्य(सीजन-2)-पार्ट-6
जब गुरु और शिष्य समान शक्ति को धारण करने वाले हो, तब शिष्य के द्वारा बार-बार गुरू की ओर उन्मुख होना और अपने गुरु से याचक को परिचर्चा करने को कहना,आखिर कहां तक उचित है?? आप ही बताएं कि जब आपके गुरु ने आपको संपूर्ण विद्या प्रदान कर दी, इसके पश्चात भी आप मेरे प्रश्नों का यथोचित उत्तर देने में क्यों समर्थ नहीं है?? आखिर क्या कारण से आप आचार्यवर को बार-बार परेशान करना चाहते हो।
लक्षणा ने यह प्रश्न उत्तर उत्सुकता वश किया या उग्र होकर समझ नहीं आ रहा था। लेकिन चित्रसेन महाराज गंभीर थे इस विषय को लेकर.. और लक्षणा को गुरु का महत्व समझाना अति आवश्यक हो गया था, क्योंकि शायद शक्ति का पूर्ण परिचय नहीं होने पर मनुष्य अपनी परिसीमाओं को ध्यान नहीं रखता, या यूं कहे कि कभी कबार अज्ञानवश समर्थ पुरुष का भी अपमान कर बैठता है, क्योंकि उसे अंदाजा नहीं होता की सामर्थ्यवान पुरूष कभी भी दिखावा नहीं करते। सामर्थ्यता उनके कार्य में झलकती है ना कि अल्पज्ञानियों की तरह वे अपनी वाणी से अपना ही गुणगान का प्रचार प्रसार करते हैं।
चित्रसेन महाराज ने इस पर लक्षणा की ओर देखते हुए कहा.... यथार्थ है! लक्षणा तुम्हारे प्रश्नों के जवाब मेरे द्वारा ना दिया जाना बिल्कुल अनुचित है। लेकिन क्या इसका कारण तुम्हें पता है? शायद नहीं..... तब चित्रसेन महाराज ने लक्षणा की ओर इशारा कर कहा, लक्षणा मंदिर के दक्षिण द्वार की और एक दीप भूमि है, जहां एक विशेष शक्ति का वास है और वह तुम्हारे समस्त सवालों के जवाब दे पाने में सक्षम है, और उसे प्रकट करने के लिए मंदिर में रखा हुआ शंख यदि यहां से ही खड़े होकर बजाए जाए तो संभव है कि वह प्रकट होकर तुम्हारी सहायता करे। जाओ, तनिक प्रयास करो।
यह सुनते ही लक्षणा जाकर मंदिर में उस शंख को उठाकर अतिशीघ्र प्रश्नों के जवाब हेतु शंख को उठाने का प्रयास करती। लेकिन उस साधारण शंख को तिल मात्र भी नहीं खिसका पाती।
कदंभ समझ चुका था कि आचार्य लक्षणा को कुछ शिक्षा देना चाहते हैं, इसलिए शांतिपूर्वक चित्रसेन महाराज जी के पास खड़ा रहा, क्योंकि वह जानता था कि यह परीक्षा लक्षणा के लिए और उसमें इसका हस्तेक्षप संभव नहीं है। अनेकों अथक प्रयास करने के पश्चात जब लक्षणा शंख को ना हिला पाई।
तब लक्षणा को अपनी गलती का एहसास हुआ, और वह अपराध बोध के साथ आकर चित्रसेन महाराज के पास हाथ जोड़कर खड़ी होकर कहने लगी.....महाराज यह कैसा हास्य है। आपने मुझे शंख लाने को कहा और यह भी बताया कि मेरे सारे प्रश्नों के जवाब मिल जाएंगे। लेकिन वह शंख तो अपने स्थान से हिल ही नहीं पाया। आप ही बताएं ऐसा क्यों?? और क्या लाभ ऐसा सत्य जानकर जो साकार ना हो सके।
मैं किस सच को स्वीकार करूं, यह की मैं उस शंख को ना उठा पाऊं , या यह कि सब कुछ जानते हुए भी आपने मुझे वहां तक भेजा। बताइए..... लक्षणा ने नम आंखों से गुरुवर की और देख प्रश्न किया। आचार्य चित्रसेन ने यह देख कि लक्षणा की दशा उसकी अधूरी शिक्षा का परिणाम है, उसे माफ करते हुए कहा....
लक्षणा जब किसी शक्ति को पुकारने के लिए किसी साधन का उपयोग करने को कहा जाए तो वह साधन महज एक वस्तु नहीं होता, जो व्यक्ति उसे सामान्य वस्तु समझकर उपयोग करने की भूल करता है, फिर भले ही वह उसके द्वारा उपयोग में दिन रात ही क्यों ना लाई जाती हो। उसके उपयोग के परिणाम स्वरुप सफल नहीं हो सकता या यह भी हो सकता है कि उसका उपयोग ही ना कर पाए, और कभी कबार जबरदस्ती बार-बार प्रयास करने से दिव्य शक्तियों से सुसज्जित वह साधन जिसे मनुष्य सामान्य समझने की भूल कर धृष्टता कर बैठता है।
उसके दुष्परिणाम भी उसे प्राप्त हो सकते हैं , या यह भी हो सकता है कि उसका अभिमान उसके अपमान में परिवर्तित हो जाए। इसका सबसे सरल उदाहरण शिवभक्त रावण के द्वारा सीता स्वयंवर में धनुष को ना उठा पाना और स्वयं रामभक्त हनुमान के द्वारा एक बार त्रुटिवश ऐसा ही कार्य जिसमें अहंकार तो नहीं था, लेकिन किया गया और वे खुद असफल हो गए।
ठीक इसी तरह सच कहो लक्षणा जब मैंने तुम्हें महाशक्ति का आह्वान करने के लिए शंख बजाने को कहा, तब तुमने क्या किया। बिना कुछ जाने विधि के बारे में ना पूछा। तुम्हें सिर्फ याद रहा कि शंख बजाना है। क्या तुमने शंख को बजाने की विधि जाननी चाही?? नहीं ना.... शायद इसलिए कि मैंने तुम्हें सीधे-सीधे उपाय बता दिया। इसके पश्चात भी जब तुम पहुंचे तो तुमने जाकर क्या पहले नाग माता से उनके समक्ष रखे शंख को उठाने की अनुमति मांगी?? क्या तुमने उस शंख को प्रणाम किया?? क्या अपनी मनोकामना हेतु अपना मनोरथ शंख के समक्ष रखा??
नहीं,,,क्योंकि तुम्हारी नजर में वह एक सामान्य शंख था, और त्रुटि को सुधारने हेतु शक्ति अपना परिचय ना दें, यह नहीं हो सकता, इसलिए तुम जिस शंख को सामान्य समझ रही हो उसने अपनी शक्ति का परिचय तुम्हें शक्तिहीन करके दिया। अब बताओ इसमें किसका दोष है??
लक्षणा यह हो सकता है कि गुरु को इतना समय ना मिले कि वह किसी कारणवश संपूर्ण विवरण एक साथ ना बता सके।लेकिन इसका आशय यह नहीं कि शिष्य अपने स्वविवेक और पूर्ण ज्ञान को भूल जाए, क्योंकि शिक्षा एक दिन में संभव नहीं होती। यदि ऐसा संभव होता तो शायद महाप्रलय निकट नहीं होता और एक सामान्य व्यक्ति की क्या गुरु भी अहंकारी हो सकता था, क्योंकि ऐसे समय में अंतिम चरण की महज शिक्षा प्राप्त करके व्यक्ति अपने ध्येय को प्राप्त कर लेगा। फिर क्यों वह वर्षों तक गुरु सेवा और चरणबद्ध शिक्षा प्रणाली को अपनाता।
लक्षणा सच कहा ना मैंने....क्या तुमसे त्रुटि नहीं हुई। यदि हां... तब फिर इतनी व्यग्रता क्यों?? जिस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तुम्हारा जन्म हुआ है। वह कोई साधारण नहीं। तुम्हारी शक्तियां जो बिना प्रयास के तुम्हारे जन्म के साथ तुम्हें प्राप्त हुई है। मात्र उतनी ही शक्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपना पूरा जीवन तपस्या में बिता देता है। इसका तुम्हें भान भी नहीं।
तुम जिस कदंभ को देख रही हो, क्या तुम्हें पता है कि इसने कई बार मात्र शक्ति की आज्ञा को नतमस्तक हो, मानव जीवन ना लेने का कहे ठुकरा दिया। सिर्फ इसलिए क्योंकि यह तपस्यारत था और तुम्हें दिए हुए वचन के लिए वर्षों से तपस्या करता रहा, तब कहीं इसके त्याग, बलिदान और तपस्या से प्रसन्न होकर तुम्हारा जन्म एक युग पहले संपन्न हुआ।
क्रमशः.....
Mohammed urooj khan
23-Oct-2023 12:27 PM
👌🏾👌🏾👌🏾
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Gunjan Kamal
21-Oct-2023 03:41 PM
शानदार
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